Arpit Arya
(3 min read)
कागज़ के पुलिंदों को यूँ इस कदर खोलता ,
अपने नए रास्ते ढूंढता चला गया ,
मंज़िल नज़दीक नही , दूर तलक जाना है ,
बस एक कदम और मन को समझाता हुआ चला गया ,
होती है बेचैनी इस कदर कभी कभी की ,
रुक जाता था कहीं , थम जाता था कभी ,
तू उठ जा एक बार , फिर इस पगले दिल को समझाता चला गया ,
होंसला ना टूटे कभी , हिम्मत ना छूट जाए कहीं ,
यहीं सोच के रोज़ इक्क नया कदम बढ़ाता चला गया ..
छुपा लेता था इन्ह नम आँखों को सभी से ,
रोते हुए हर्फ़ इन् कागजों पर उतरता चला गया ,
खो जॉन अपने ख़्यालों में कहीं
दूर इस फरेबी दुनिया से भाग जाऊ कहीं ,
थक के फिर उस पलंग पे निंदिया में चला गया ,
उठा जब सुबह तोह नया ज़ज़्बा ,इक नयी उड़ान की और चल दिया ,
सोचा हो कुछ अच्छा चाहे हो बुरा , अनुभव की पोटली में दान डालता हुआ चला गया ,
चला जो राह में कुछ हँसते हुए बच्चे दिखे , इन् नन्ही सी हसरतों को दिल में समाता चला गया
रुक्सत हो जाऊंगा इन् ख्यालों से कभी , फना सी हो जाएंगी यह चलती हुई सांसें
बस यह कतरा कतरा जज़्बातों का बहाता हुआ चला गया ,
कि आएंगे अच्छे दिन हमारे भी कभी ,होंगे मशहूर इस जहां में , मुकाम आकर गिरेगा क़दमों में कभी , इस चिल्म की चिंगारी से आग सुलगता हुआ चला गया ,
सोच कुछ चला ऐसे जाए की इतिहास के पन्नो में अमर हो जाऊं ,
बस इन्ही रास्तों पे एक गीत नया गाता हुआ चला गया
Arpit is a guest author at Soulgasm.
(Click here to read our first book “Mirrored Spaces” : A poetry and art anthology in English and Hindi with contributions from 22 artists)
Nice, Arpit. However, I would suggest you to proof read the poem once again from the perspective of spellings. There are quite a number of spelling errors here and there and if taken care, your poem will come out more gracefully.
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